बैगा जनजाति के विविध संस्कार - छत्तीसगढ़ विशेष सन्दर्भ में
हरिश कुमार साहू , डॉ० (श्रीमती) वेदवती मण्डावी
1शोधार्थी शास० वि० या० ता० स्नात० स्वशासी महाविद्यालय दुर्ग (छत्तीसगढ़)
2सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष ,राजनीति विज्ञान विभाग शास० वि० या० ता० स्नात० स्वशासी महाविद्यालय दुर्ग (छत्तीसगढ़)
*Corresponding Author E-mail: harishsahu27011992@gmail.com
सारांश
मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में बैगा जनजाति PVTG में शामिल है। बैगा जनजाति का निवास नर्मदा नदी एवं इसकी सहायक नदियों और सतपुड़ा पर्वतमाला के मैकल रेंज के दोनों ओर है। बैगा स्वयं को भूमि पुत्र और भूमि का राजा मानते हैं, जीवन के विविध अवसरों पर इनके संस्कारों का अध्ययन आवश्यक है।
शब्दकुंजी - माइबेला, सुनमाई, नरा, जच्चा कनहरी, बैगा झालर, बदनिन, वधु मूल्य, दोसी, मिलौकी, सामरा
1. प्रस्तावनाः
भारत में विशाल मात्रा में जनजातियां निवास करती हैं। वर्तमान समय में भारत में कुल 663 जनजातियां अनुसूचित हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में जनजातियों की संख्या कुल जनसँख्या का 8.6ः है। मध्य प्रदेश वह राज्य है जहाँ देश की कुल जनजातीय जनसख्या का 14.69ः जनसंख्या निवासरत है, एवं छत्तीसगढ़ में यह संख्या 7.5ः है। इस प्रकार दोनों राज्यों में भारत की कुल जनजातीय जनसंख्या का 22.19ः जनसख्या निवास करती है।1 वहीं यदि दोनों राज्यों की कुल जनसंख्या में से जनजातियों की संख्या पर ध्यान दें तो मध्य प्रदेश की कुल जनसंख्या का 21.1ः जनसंख्या जनजातियों की है एवं छत्तीसगढ़ की कुल जनसंख्या में जनजातियों का प्रतिशत 30.6ः है। इस प्रकार मध्य भारत के ये दो राज्य जनजातीय बहुल राज्य हैं।2
इन जनातियों में से विकास की दृष्टि से पिछड़ी हुई जनजातियों को ‘विशेष पिछड़ी जनजातीय समूह’ ;च्टज्ळ दृ च्ंतजपबनसंतसल टनसदमतंइसम ज्पइंस ळतवनचेद्धमें रखा गया है एवं इनके विकास के लिए विशेष प्रयास केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा किये जा रहे हैं। वर्तमान समय में 75 जनजातियों को इस समूह में रखा गया है।3 जिनमे से मध्य प्रदेश की तीन (बैगा, भारिया एवं सहरिया) और छत्तीसगढ़ की पांच (अबूझमाड़िया, बैगा, बिरहोर, कमार और पहाड़ी कोरवा) जनजातियों को स्थान दिया गया है।
बैगा जनजाति मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य के विशेष पिछड़ी जनजाति समूह में शामिल है। इससे स्पष्ट है कि यह जनजाति अन्य जनजातियों से पिछड़ी अवस्था में है।
वर्तमान समय में जब हम अच्छे विदेशी कंपनी के कपड़े, कार, सिनेमा और अन्य विलासितापूर्ण जीवन की कामना करते हैं, स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, 4ळ इन्टरनेट जैसी सुविधाओं की आकांक्षा रखते हैं, ठीक इसी समय भारत के हृदय स्थल, सतपुड़ा पर्वतमाला में नर्मदा एवं सहायक नदियों की गोद में, मैकल पर्वत क्षेत्रो में बैगा जनजाति कृषि पूर्व अर्थव्यवस्था में वनोपज संग्रह, शिकार और हस्तकला के प्रयोग से बांस आदि की वस्तुएं बनाकर उन्हें बेचकर अपना जीविकोपार्जन कर रहे हैं ।
शहरी और कस्बाई क्षेत्रो में हम अपने प्राचीन संस्कारों में आधुनिकता का मिश्रण कर रहे हैं, उसके स्वरूप को बदल रहे हैं तब यदि जनजातियों की ओर, विशेषकर बैगा जनजाति की ओर हमारा ध्यान जाता है तो मन में ये कौतुहल उठता है कि वो कैसे रहते हैं, उनकी जीवन शैली क्या है, उनकी संस्कृति और संस्कार कैसे हैं, और हमारे और उनकी संस्कृतियों में क्या समानता, असमानता है?
इन सब प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने के लिए बैगा जनजाति के संस्कारो और संस्कृति का ज्ञान आवश्यक है।
बैगा जनजाति के जीवन में विभिन्न अवसर आते हैं जिनमे वो कुछ विशेष कार्य करते हैं, इन्ही विशेष अवसरों पर किये गए कार्यों को संस्कार कहा जाता है, जैसे जन्म संस्कार, छठी, नामकरण, गोदना, विवाह, मृत्य संस्कार आदि। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न है -
जन्म4-
गर्भवती बैगिन (बैगा जनजाति की स्त्री) घर खेत और जंगल का कार्य अनवरत करती है। जिस प्रकार आधुनिक समाज में गर्भवती स्त्री की गोद भराई की रस्म होती है वैसा बैगा जनजाति में नहीं होता, हाँ घर की बुजुर्ग महिला समय समय पर आवश्यक निर्देश अवश्य देती है और जड़ी बूटियों का सेवन कराती है।
जन्म के समय महिला को माई बेला की जड़ चबाने के लिए दिया जाता है, ऐसी मान्यता है कि इससे प्रसव आसानी से हो जाता है। महिला का प्रसव घर में दाई या सुनमाई करवाती है। बच्चे के जन्म के बाद दाई गर्भनाल या नरा को छुरे से काट कर प्रसूता कक्ष में गाड़ देती है। शिशु के जन्म के बाद जच्चा कनहरी या फूल को भी वहीं गाड़ दिया जाता है और उसपर आग जलाई जाती है जो नरा सूखने तक जलती है।
शिशु को सूपा में सुला दिया जाता है जिसमें पहले से ही कोदो या कुटकी के कुछ दाने रखे रहते हैं। कुछ समय बाद जच्चा बच्चा को गर्म पानी से स्नान करा दिया जाता है। इसके बाद दोनों को पुआल (कोदो पैरा) पर सुलाया जाता है फिर एक दवाई बड़ी उजहा पिलाया जाता है, कुछ समय बाद माँ को कोदई का भात और उड़द दाल खाने के लिए देते हैं। बैगा जन्म के समय कोई गीत नही गाते और न ही नृत्य होता है।
छठी (छट्ठी)5-
छठवे दिन जब शिशु का नरा सूख जाता है तब इसे सोहर उठाई कहते हैं। इस दिन की पूजा को छठी पूजा कहते हैं। इस दिन सुबह माँ घर की सफाई करती है, पुआल और राख आदि को बाहर फेक दिया जाता है, गोबर से उस स्थान की लिपाई करते हैं। माँ नदी में स्नान करने जाती है जहाँ काली मिट्टी या छूही (सफेद मिट्टी) से बाल धोती है। वापस आकर स्वयं और बच्चे का मालिश करती है। उस दिन कोदई की भात और राहर (अरहर) की दाल का भोजन करती है।
इसके बाद महिलाएं बच्चे को देखने आती हैं, माँ उनका आशीर्वाद लेती है। घर का मुखिया पांच बोतल मंद (महुए की शराब) देता है जिसे सब पीते हैं।
छठी के अगले दिन बच्चे का पिता बच्चे के सिर के बाल काट देता है इसे बैगा झालर कहते हैं।
माँ उस दिन से घर का सब काम करती है किन्तु रसोई घर में नही जा सकती। उसे दो या तीन महीने तक अशुद्ध समझा जाता है। तीन महीने बाद महिला खाना बनाती है और गाँव की महिलाओं को बुलाकर भोजन कराती है, इस दिन मांस नही बनाया जाता।
नामकरण6-
माँ की शुद्धि के दो से पांच दिन के बाद नामकरण संस्कार होता है। इस दिन घर का मुखिया गाँव के सभी व्यक्तियों को निमंत्रित करता है, समधी समधिन को भी आमंत्रित किया जाता है। सभी लोग आंगन में बैठते हैं, और घर का मालिक एक पीपा मंद निकालता है। कोई बुजुर्ग महिला या माँ बच्चे को लेकर घर के दरवाजे के बीच बैठती है। थाली में बच्चे के पैर को लटका कर रखती है। कोई बुजुर्ग व्यक्ति या मुकद्दम (जाति पंचायत का मुखिया) नामकरण का कार्य करता है। वह बच्चे के पैर को छूता है, और नाम रखकर आशीर्वाद देता है , और उसके पैर को मंद से धोता है। नाम प्रायः पूर्वज, दिन, महीने, पशु-पक्षी, नदी, बच्चे के रंग, चेहरे की बनावट आदि के आधार पर रखा जाता है। इसके बाद सभी लोग बारी बारी से इसी प्रक्रिया को दोहराते हैं। जिसके बाद मंद पीने का कार्य शुरू होता है।
बैगा बालक या बालिका में कोई भेद नही मानते। किन्तु यदि किसी घर में लड़कियां ही लड़कियां जन्म लेती है तो शिशु के जन्म के समय सूपा में सभी प्रकार के अनाज रखकर शिशु को उसमे सुला देते हैं। इस प्रक्रिया को बर्रादाना कहते हैं। उनका ऐसा विश्वास है कि ऐसा करने से महिला के गर्भ का नरा बदल जायेगा और अगली सन्तान लड़का होगा।
गोदना7 -
वैसे तो जनजातियों में और छत्तीसगढ़ के सभी ग्रामीण क्षेत्रों में गोदना गुदवाया जाता है किन्तु बैगा जनजाति में गोदना का विशेष महत्त्व है। किसी भी बैगिन को उसके माथे पर गुदे गोदने को देखकर निर्विवाद रूप से पहचाना जा सकता है।
बैगा जनजाति में महिलाएं अनिवार्य रूप से गोदना गुदवाती हैं एवं पुरुष भी गोदना गुदवाते हैं। उम्र के अलग-अलग पड़ाव में अलग-अलग गोदना गुदवाने की प्रथा है। विवाह के पहले तक गोदना गुदवाने का खर्च लड़की के माँ बाप वहन करते हैं जबकि विवाह के बाद स्त्री के गोदने का खर्च उसका ससुर वहन करता है। जिस बैगिन का गोदना जितना अधिक स्पष्ट और साफ होता है उसे उतना ही सौभाग्यशाली माना जाता है।
गोदना गोदने का काम बदनिन करती है जिसे बैगा लोग गोदनाहारिन कहते हैं। वह गोदना गोदने के बदले कुछ रूपये लेती है। ऐसी मान्यता है कि यदि बैगिन गोदना नही गुद्वाएगी तो मृत्यु के बाद भगवन उसे साबर से गोदेंगे।
विवाह8-
बैगा जनजाति में विवाह पूर्व यौन संबंध पाए जाते हैं। लड़की लडके की आपसी सहमति से विवाह पूर्व संबंध बनाये जा सकते हैं। हालांकि जिन दो युगल के मध्य शारीरिक संबंध बन जाते हैं उन्हें भावी पति पत्नी मान लिया जाता है, अर्थात भविष्य में उनके आपस में विवाह करने की पूर्ण संभावना रहती है।
बैगा जनजाति में विवाह के समय एक विलक्षण बात यह है कि एक और जहां देश में कहीं विवाह के समय वधु पक्ष वर पक्ष को दहेज देते हैं वहीं दूसरी ओर बैगा जनजाति में वर पक्ष वधु पक्ष को दहेज देता है, जिसे वधु मूल्य कहते हैं।
इनमे 6 प्रकार के विवाह होते हैं - मंगनी विवाह या चढ़ विवाह, उठवा विवाह, चोर विवाह, पैठुल विवाह, लमसेना विवाह और उढरिया विवाह।
मंगनी विवाह या चढ़ विवाह-
मंगनी विवाह को हम अरेंज्ड मैरिज मान सकते हैं। जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि यह विवाह मंगनी अर्थात बड़े बुजुर्गों द्वारा तय किया जाता है। हालांकि इसमें लड़की की इच्छा सर्वोपरि होती है।
इस विवाह पद्यति में विवाह से पहले सगाई होती है। जिसमें लड़के के घर वाले कुछ बड़े बुजुर्गों के साथ लड़की के घर जाते हैं और लड़की के पिता से कहते हैं “हमें प्यास लगी है” तब लड़की का पिता दो बोतल मंद लाकर रखता है और किसी बुजुर्ग महिला के साथ अपनी बेटी के पास जाकर पूछता है “मंद पियूँ”? यदि लड़की ना बोले तो लड़के वाले तुरंत लौट जाते हैं और यदि हाँ बोले तो रिश्ता तय माना जाता है। फिर लड़की का पिता और मंद लेकर आता है जिसे सब मिलकर पीते हैं और रिश्ता तय कर दिया जाता है।
इसके बाद विवाह होता है जिसमे रस्म निभाने वाले कुछ विशेष व्यक्ति होते हैं, प्रथम दोसी, यह कोई बुजुर्ग व्यक्ति होता है जो विवाह के समय धार्मिक रिवाज पूर्ण करवाता है, दूसरा सुआसिन, यह वर और वधु की सगी बहनें, या चचेरी ममेरी बहनें होती हैं एवं सभी अविवाहित होती हैं। सुआसिन विवाह समारोह के दौरान वर वधु की विभिन्न कार्यों में सहायता करती हैं।
उठवा विवाह-
बैगा जनजाति में उठवा विवाह का विशेष महत्व है। इसमें दोनों पक्षों के लोग मिलकर आपस में विवाह तय कर लेते हैं एवं विवाह के दिन वर पक्ष के सभी सदस्य लड़की के गाँव में ही आते हैं। इस विवाह में अन्य सभी रस्म मंगनी विवाह की तरह ही होता है एवं सारा खर्च वर पक्ष वहन करता है।
चोर विवाह-
बैगाओं में चोर विवाह सबसे अधिक प्रचलित है । बाजार में जब लड़का-लड़की मिलते हैं, यदि वे एक दुसरे को पसंद कर लेते हैं तो आपसी सहमति से भाग जाते हैं, भाग कर वो लड़के के घर न जाकर गाँव के मुकद्दम या किसी रिश्तेदार के घर जाते हैं। इसकी सूचना लड़की के पिता को दे दी जाती है। वह आता है और विवाह की सारी बातें तय हो जाती है, एवं निश्चित समय पर विवाह हो जाता है।
यदि किसी लड़की को जबरदस्ती भगाकर लाया जाता है तो मुकद्दम लड़की को सकुशल उसके पिता के घर वापास भिजवा देता है।
पैठुल विवाह-
इसमें कुंवारी लड़की रात के समय अपने घर से कुछ गहने लेकर लड़के के घर पीछे के रास्ते से घुस जाती है और लड़के के ऊपर हल्दी छिड़क देती है, इसे लड़की की स्वीकारोक्ति माना जाता है। लड़के के घर वाले घर में मौजूद रहते हैं।
सुबह घर का मालिक इस बात की सूचना मुकद्दम और अन्य व्यक्तियों को देता है। मुकद्दम सबसे पहले लड़की की इच्छा पूछता है और जवाब से संतुष्ट होने पर लड़की की इच्छा से तुरंत मड़वा में भांवर करा देता है।
इसके बाद लड़की के पिता को संदेश भेज दिया जाता है, वह आता है और विवाह की बातें तय होती हैं। निश्चित तिथि को धूमधाम से विवाह हो जाता है। वधु पक्ष वर पक्ष से खर्च वसूलता है जो प्रायः रूपये के रूप में होता है। खर्च न देने की स्थिति में वर वधु के घर तीन वर्ष तक लमसेना बनकर रहता है।
लमसेना विवाह-
लमसेना को छत्तीसगढ़ में घरजिया कहते हैं। जब लड़के के माता पिता विवाह करने में असमर्थ हो, तो लड़कालड़की के पिता के घर स्वेच्छा से रहने चला जाता है। वहां लड़का खेती-बाड़ी और जंगल आदि का सब काम करता है। यदि लड़की का पिता लड़के काम से संतुष्ट हो जाता है तो एक ही वर्ष में अपनी लड़की का विवाह लड़के से कर देता है।
लमसेना रहने की अवधि प्रायः पांच से सात वर्ष होती है। इसके बाद लड़की अपने पति के साथ अलग घर में रह सकती है।
उढरिया विवाह-
उढरिया विवाह चोर विवाह की तरह ही होता है, इसमें भी लड़का-लड़की भाग जाते हैं किन्तु इसमें दोनों के माता-पिता की रजामंदी नही होती। इसमें विवाहित स्त्री अपनी मर्जी से दूसरे लड़के के घर घुस जाती है, और दूर के रिश्तेदारों की सहायता से विवाह कर लेती है।जिसके बाद गाँव के पंच इकठ्ठे होते हैं और स्त्री के गहनों की जाँच करके उसे जब्त कर लेते हैं। उसका भावी देवर उसपर एक लोटा गर्म पानी डाल देता है जिससे उसे पवित्र हुआ मान लिया जाता है। पंच मंद पीते हैं। स्त्री का पूर्व पति वर्तमान पति से हर्जाना वसूल करता है जिसे दावा कहते हैं। दावा रूपये पैसे, गाय बैल आदि के रूप में होता है, इसका निर्धारण मुकद्दम करता है।
दावा चुकाने के बाद दोनों पक्षों में मिलन होता है जिसे मिलौकी कहते हैं। इसमें मुकद्दम की मुख्य भूमिका होती है। वह दो खपरियों में एक एक रुपया, दूब और कच्चा हींग रखता है और पंचो के सामने उन्हें तोड़ देता है जिसे बैर टूटना कहते हैं अर्थात पूर्व पति और वर्तमान पति के बीच दुश्मनी को समाप्त माना जाता है।
इसके बाद स्त्री पूर्व पति वर्तमान पति और पंचों को भोजन कराती है, जिसके बाद पूर्व पति घर लौट जाता है।
विशेष - बैगा जनजाति मे बहुविवाह प्रचलित है, प्रायः बैगा पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करते हैं, स्त्रियों को भी दूसरा विवाह करने की स्वतन्त्रता है, वो अपनी मर्जी से दूसरे पुरुष के साथ विवाह कर के जा सकती है।
विधवा पुनर्विवाह को मान्यता प्राप्त है। जिसे चूड़ी पहनना कहते हैं। विधवा का विवाह प्रायः उसके देवर से होता है। किन्तु यदि स्त्री किसी अन्य व्यक्ति से विवाह करना चाहे तो कर सकती है।
यदि परित्यक्ता स्त्री गर्भवती होती है तो उसके शिशु पर पूर्व पति का अधिकार होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि बैगा जनजाति को आदिम जनजाति और विकास से वंचित माना जाता है, किन्तु इनकी सामाजिक संरचना उनमे लोचशीलता, व्यवस्थाएं और खुलापन पाया जाता है, इनकी बहुविवाह, स्त्री को भी दूसरा विवाह करने की स्वतन्त्रता, भाग कर विवाह करने को मान्यता आदि स्वतन्त्रता इन्हें हम गैर जनजातीय समाज से अधिक आधुनिक बनाती है।
मृत्यु संस्कार9-
जीवन यात्रा का अंतिम पड़ाव मृत्यु होता है। जब व्यक्ति अपने इस भौतिक शरीर का त्याग करके पंच तत्व में विलीन हो जाता है।
बैगा जनजाति में शव को जलाने और दफनाने की दोनों प्रथाएं प्रचलित है। प्रायः शव को दफनाया जाता है किन्तु यदि किसी की मृत्यु लम्बी बीमारी के बाद हुई हो तो उसे जलाया जाता है।
बैगाओं के श्मशान नदी के उस पार होते हैं, इनकी मान्यता है कि भटकती मृतात्मा कभी नदी को पार कर के इस पार नहीं आ सकती।
मरने वाले की अंतिम साँस के समय उसकी आत्मा की तृप्ति के लिए उसके मुह में दही एवं सोने या चांदी का सिक्का रखते हैं, जिससे उसका अगला जन्म वैभवशाली रहे। इसे सामरा प्रथा कहते हैं।
जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो घर का मुखिया या कोई अन्य व्यक्ति गाँव के सभी व्यक्तियों को सूचना देता है है। खबर मिलते ही सब लोग इकट्ठे हो जाते हैं। मरते समय व्यक्ति को जमीन पर नही उतारते।
शव को स्नान नही कराया जाता। शरीर में तेल हल्दी लगाकर नया लंगोट पहना देते हैं। पांच या छः हाथ (एक हाथ = लगभग 1.5 फीट लम्बाई) का सफेद कपड़ा कफन के लिए प्रयोग करते हैं। कफन आ जाने पर शव को खाट से उतारकर जमीन पर रखते हैं और कफन ओढा कर हल्दी पीस कर छिड़कते हैं।
खटिया को आंगन में निकाल कर घर के दरवाजे के पास उल्टा कर के रखा जाता है जिसपर शव को लिटा दिया जाता है, शव का पैर घर की तरफ होता है। स्त्री के सिरहाने में उसके गहने और पुरुष के सिरहाने में उसके तीर कमान तम्बाकू, चिलम, चोंगी आदि रखते हैं।
हांडी में तिल, तेल, नमक रखते हैं। कंडे में आग और अलग से पुआल रखते हैं। इस प्रकार शव का सम्पूर्ण श्रृंगार कर के अंतिम यात्रा के लिए निकलते हैं।
यदि शव को जलाना होता है तो लकड़ी का प्रबंध किया जाता है। शव को तीन परिक्रमा करवा के चिता पर उत्तर दिशा की अ®र पैर कर के औंधा लिटाया जाता है, कफन और अन्य कपड़े उतार लिए जाते हैं।
चिता को मुखाग्नि बेटा, पति या भाई देता हैं, इनकी अनुपस्थिति में पंच लोग मुखाग्नि देते हैं। मृतक के सिरहाने रखे सभी सामान को चिता में डाल दिया जाता है।
शव को दफनाने की क्रिया को माटी देना कहते हैं। इसमें सब्बल से लगभग पांच- साढ़े पांच फीट लम्बा, ढाई फीट चैड़ा और तीन फीट गहरा गड्ढा जिसे खंद कहते हैं, खोदा जाता है। सबसे पहले उसमे हल्दी चावल डालते हैं, फिर मंद डालते हैं और शव के सभी कपड़े उतार कर उत्तर दिशा की ओर पैर कर के गड्ढे में लिटा दिया जाता है। सबसे पहले मृतक का लड़का या पति तीन मुट्ठी मिट्टी शव के सर से पैर तक डालता है उसके बाद सभी लोग मिट्टी से उसे पाट देते हैं। मृतक की सभी वस्तुओं को कब्र के ऊपर रख दिया जाता है।
अंतिम संस्कार के बाद सब लोग नदी या नाले के पास स्नान करने आते हैं। घर का मुखिया या लड़का साथ लाये कफन को गीला कर के उसके पानी को टपकाते हुए घर की ओर चलता है, बाकी सब उसके पीछे एक कतार में चलते हैं।
इस समय सबसे आगे चल रहा व्यक्ति एक सिक्का हाथ में लेकर उसपर थूंक कर पीछे वाले व्यक्ति को देता है, और इस प्रकार सब ऐसा करते हैं, अंतिम व्यक्ति पैसा पीछे फेंक देता है। ऐसा करने का कारण यह बताया जाता है कि इससे भूत-प्रेत पीछा नही करते।
यदि मृतक पुरुष है तो स्त्रियाँ विधवा स्त्री को लेकर अलग घाट पर स्नान करने जाती हैं। यहाँ पर विधवा की चूड़ी उतार कर नदी में बहा दिया जाता है। महिला यदि चाहे तो क्रिया करम तक चूड़ी पहन सकती है। पुरुषों के आने से पहले महिलाएं घर वापस आ जाती हैं, घर के आंगन में तुम्बी में पानी भर कर रखा जाता है जिसमे से पानी लेकर सभी महिलाएं हल्दी तेल लगाती हैं और अपने घर लौट जाती हैं।
इधर गीला कफन लेकर व्यक्ति वापस आकर उस स्थान पर जाता है जहाँ पर मृतक ने अंतिम साँस ली थी। उस कफन के पानी को यहाँ पर छिड़का जाता है जिससे मृतक को शांति मिलती है।
मृतक के घर में तीन दिन तक सूतक लगा होता है इन दिनों घर में खाना नही बनता, पडोसी या अन्य रिश्तेदार अपने घरों से भोजन लाकर देते हैं।
तीसरे दिन घर को लीपते हैं, घर में खाना बनाते हैं और वह खाना लेकर श्मशान जाकर मृतक को भोजन कराते हैं। भोजन में मछली, केकरा (केकड़ा) और एक बोतल मंद का होम दिया जाता है। होम में सरई लकड़ी की राल का प्रयोग करते हैं। मछली और केकरा को कब्र या चिता वाले स्थान में रख कर उसपर मंद छिड़कते हैं, शेष बचे मंद को पंच लोग पीकर वापस आ जाते हैं। घर में पुनः मंद के साथ सब भोजन करते हैं।
इसके आगे का क्रिया करम बैगा अपने सामर्थ्य के अनुसार गाँव के लोगो के साथ सलाह कर के प्रायः दस पन्द्रह दिन, छः माह या एक साल में करते हैं।
मुकद्दम घर के मालिक को आवश्यक निर्देश देता है, निर्देशानुसार महुए की व्यवस्था कर के मंद तैयार करते हैं, गाँव के युवा जंगल से महलोन के पत्ते इकठ्ठा कर के पतरी बनाते हैं, और भोजन तैयार कर के सब साथ में भोजन करते हैं। इस सामूहिक भोज को मांदी कहते हैं।
मृतक के क्रिया कर्म के समय गीत नही गाये जाते किन्तु नगाड़ा बजाना अनिवार्य होता है। नगाड़े की आवाज सुनकर सब जान जाते हैं कि नहावन में जाना है।
नहावन-
नहावन म्रत्यु संस्कार के अंतिम दिन नहाने को कहते हैं, छत्तीसगढ़ में गैर जनजातीय समाज में यह प्रायः यह दसवे दिन होता है।
बैगा जनजाति में नहावन तीन प्रकार के होते हैं - मांदी नहावन, मैला मांदी और उजरी मांदी।
मांदी नहावन-
मांदी नहावन में सभी रिश्तेदारों और गाँव वालो को न्योता देते हैं। घर की साफ सफाई की जाती है। घर में सब मंद पीकर श्मशान जाते हैं जाते समय एक मुर्गा, चावल और मंद लेकर जाते हैं। अंतिम संस्कार वाली जगह पर सब अपने अपने मंद से तर्पण करते हैं, बाजा निरंतर बजता रहता है। तर्पण करने के बाद चावल के दाने को बिखेर दिया जाता है और मुर्गे को छोड़ दिया जाता है। यदि मुर्गा दाने चुग लेता है तो यह माना जाता है कि तर्पण लग गया। और मृतात्मा की शांति के लिए फिर मंद पीते हैं।
इसके बाद सब नदी के पास आकर स्नान करते हैं। चिता की राख विसर्जित करते हैं, दाढ़ी मूंछ मुड़वाते हैं, किन्तु सर के बाल को पूरा नही मुंडवाते हैं। यहां भी मंद पीते हैं।
वापस आकर घर मालिक चार बोतल मंद निकालता है जिसे उठियार-सुठियार का मंद कहते हैं इसके बाद भोजन होता है।
स्त्रियाँ नदी पर जाकर दातुन करती है। महलोन के पत्ते का दोना बनाकर उसमे हल्दी चावल रखकर पास में रख दिया जाता है। विधवा पानी के पास बैठती है और बाकि स्त्रियाँ उसपर पानी उलीचती हैं। यदि उनकी हथेली में कोई कीड़ा या अन्य जीव आ गया तो समझा जाता है कि मृतक विधवा से बहुत प्रेम करता था।
पत्ते को वहीँ विसर्जित कर दिया जाता है और यह इस बात का प्रतीक होता है कि अब मृतक का विधवा से कोई संबंध नही है।
मैला मांदी -
इसमें स्नान कर के वापस आने के बाद भोजन मंद और पानी लेकर गाँव के बाहर जाकर मृतक को अंतिम भोज दिया जाता है। वापस आकर पंच सबसे पहले लड़के के मुह से मंद जूठा कराते हैं। फिर सभी पंच हाथ धोते हैं और लड़के को एक एक कौर भोजन खिलाते हैं। इसे मैला मांदी कहते हैं।
उजरी मांदी -
उजरी मांदी में प्रायः विधवा का विवाह उसके देवर से होता है। इसमें प्रत्येक घर से दाना तथा मंद लाते हैं। जिसका हिसाब किताब बाद में होता है। घर का मालिक बुजुर्गों को मंद पिलाता है जिसके बाद वो घर के अंदर जाते हैं। विधवा को देवर के नाम की चूड़ी पहनाते हैं। गहने और नये कपड़े धारण करते हैं, घर के अन्य सदस्य भी नये कपड़े पहनते हैं।
इसके बाद विधवा और अन्य परिजन बहार आकर सबका आशीर्वाद लेते हैं, नगाड़ा बजता रहता है, नगाड़े वालों को अनाज और तय की गई राशि दी जाती है। सभी बैगा बैगिन नाचते हैं।
नृत्य समाप्त होने के बाद सभी अपने घर चले जाते हैं। इस समय विवाहित जोड़े के बहन बहनोई को गाय बछिया और कपड़े आदि का दान मृतक व्यक्ति के नाम से किया जाता है। उपहार में आये मंद को घर वाले पीते हैं। इस प्रकार उजरी मांदी सम्पन्न हो जाता है।
नवजात शिशु की मृत्यु हो जाने पर उसे घर में ही दफना दिया जाता है एवं कब्र पर दो महीने तक आग जलाई जाती है।
बैगाओं का यह अटूट विश्वास है कि मृत्यु के बाद मृतक की आत्मा भूत या प्रेत बन जाती है। ये पुनर्जन्म में भी विश्वास रखते हैं।
इस प्रकार बैगा जनजाति में जन्म से मृत्यु तक उपरोक्त महत्वपूर्ण संस्कार होते हैं। यदि इन संस्कारों की तुलना छत्तीसगढ़ के गैर जनजातीय समाज के संस्कारों से की जाये तो हम पाते हैं कि उन्होंने अपने संस्कारों में परम्परा और प्राचीनता को जीवित रखा है और उनके संस्कार प्राचीन होते हुए भी वर्तमान विकसित कहे जाने वाले समाजों के संस्कारों से अधिक आधुनिक और स्वतंत्र प्रतीत होते हैं।
सन्दर्भ सूची-
1. स्टेटिस्टिकल प्रोफाइल ऑफ शेड्यूल्ड ट्राइब्स इन इण्डिया, जनजातीय मामलों का मंत्रालय, सांख्यिकीय विभाग, भारत सरकार (2013) पृष्ठ 2,3
2. डेमोग्राफिक स्टेटस ऑफ शेड्यूल्ड ट्राइब पापुलेशन ऑफ इंडिया. जनजातीय मामलों का मंत्रालय, भारत सरकार (2011 की जनगणना के आधार पर) पृष्ठ 8
3. च्पइण्दपबण्पद त्मजतपमअमक2016-17
4. ग्राम बदना (पंडरिया, छत्तीसगढ़) की तिकतिन बाई बैगा से प्राप्त जानकारी
5. वही
6. वही
7. ग्राम बदना (पंडरिया, छत्तीसगढ़) की सोधिन बाई बैगा से प्राप्त जानकारी
8. ग्राम बदना (पंडरिया, छत्तीसगढ़) के रामसिंह बैगा से प्राप्त जानकारी
9. ग्राम बदना (पंडरिया, छत्तीसगढ़) की रमली बाई बैगा से प्राप्त जानकारी
Received on 21.02.2017 Modified on 12.03.2017
Accepted on 28.03.2017 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Ad. Social Sciences. 2018; 6(1):17-24.